क्योंकि बाद में फिर सिर्फ मजबुरी रहती है, और हालात पर ही चलना पड़ता है।




"जग जाओ।"
" अभी, इसी वक्त।"
" फिर शायद कभी मौका न मिले!"
क्योंकि बाद में फिर सिर्फ मजबुरी रहती है, और हालात पर ही चलना पड़ता है।

मैने देखा है! उस माता-पिता को सुना है !
उस पिता से, जो अपने बच्चे को बिरहोर आश्रम में भर्ती करता है। इसलिये नहीं कि पढाई अच्छी होती है, बल्कि इसलिये की बच्चे को रोज का खाना मिलेगा, कपडे मिलेंगे। उस समय किसी भी अन्य सरकारी स्कूलों में भोजन की योजना चालू नही थी।
स्कुल तो गांव मे भी था। पर खाना नहीं मिलता था ना!

"सात साल का बच्चा" जिसे माँ वहां छोड़ना नहीं चाहती है, पर क्या करे ?
इसी में उसकी भलाई है। भेजना तो पड़ेगा।
बच्चा जब घर आयेगा तभी 'माँ' उस से मिल पायेगी, उसे गले लगा पायेगी। पिता बीच बीच में जाते रहेंगे, पर बच्चे को कब घर ले कर आयेंगे? पता नहीं !

बालक जब घर आता है, एक दो दिनो में 'माँ' से अपने "पिता" से "साथियो से" अभी बालक का मन भरा नहीं कि पिता फिर बिरहोर आश्रम छोड़ आते थे।

उस दिन,,,उस छोटे से बच्चे में,,,,, उस छोटे से मासूम बच्चे मे न जाने इतनी समझदारी कहाँ से आ गई थी कि बापू के और माँ की आंखो में देख कर वह हालात को समझ जाता है। वह मौन हो जाता है। अब वह कोई सवाल नहीं करता।

कई दिनो से बेटे को "माँ-बापू" समझा भी रहे थे। कभी प्यार से तो कभी डांट कर। अब वह समझ गया है कि बात कुछ और है, कि घर की माली हालत ठीक नहीं है। माता पिता के लिये उसकी देख भाल करना कठिन हो गया है। वह बालक पिता की मजबुरी के सामने नतमस्तक हो जाता है। वह उदास मन से मान जाता है। उसमें कहाँ से इतनी हिम्मत आ जाती है, कि अब वह रोता नहीं है। उसने तो आज मिठाई भी नही मांगा। शायद वह पिता को हिम्मत दे रहा होता है।

उस बच्चे के कोमल हृदय पर समुद्र की लहरों के समान भावनाओ की उथल-पुथल हो रही थी। अभी तो उसका जीवन शुरू भी नहीं हुआ है कि वक्त के थपेड़े ने उसे एक बहुत बड़ा सबक सिखा दिया है। कि जीवन जीना इतना आसान नहीं होता है। खुशियां सबको नसीब नहीं होती।

उस दिन सुबह-सुबह पिता अपना हृदय कठोर कर उसे रास्ते भर समझाते हुवे बिरहोर छोड़ आये थे। अब सप्ताह में 1 बार मिलने जाते है। पिता कब घर ले कर जायेंगे उसे नही मालुम। "बापू, मै घर जाना चहता हू माँ से मिलना है " बच्चा बापू को बोलना चहता है उस से पहले ही बापू झोले से पत्ते से सिकी हुई रोटी उसे देते हुवे कहते है "ये ले बाबू, तेरी माँ भेजी है।"
रोती का टुकड़ा मुह पर नमकीन स्वाद लेते हुवे वह रोटी को दिल पर लगा कर वह बालक माँ का प्रेम महसूस करने का प्रयास करता है। पर वह कर भी क्या सकता है...अब यह बालक के जीवन का हिस्सा बन चुका है।


माँ बाप गांव में रहते है। गाव में ज्यादा मजदूरी का काम तो रहता नही है। तो रोज गाव से निकल कर कस्बे में कमाने जाते है। तो कभी तेंदू पत्ता बेच कर, तो कभी महुआ बेच कर थोडे पैसे मिलते है तो गुजारा चलता है। दिन भर घर से बाहर रहते है। पिता कहिं और तो माँ कही दुसरी ओर, जिधर काम मिल जाये।
"बालक को दिनभर किसके भरोसे छोडे ?" यह भी एक समस्या थी।
बालक को दिन भर साथ रख उनके लिये मजदूरी करना भी आसान नहीं लग रहा था।

मै आपको सिर्फ किसी बालक की कहानी नहीं बता रहा हूं। बल्कि हमारे जीवन में भी बीबी-बच्चे कुछ ऐसा माँग कर देते है जो हम नही दे पाते है। यानी कम्प्रोमाईज करना पड़ता है । हमें इसी से तो ऊपर उठना है।

माँ बाप के लिये बच्चा ही सब कुछ होता है। पर जब गरीबी रहती है। तो अभाव या हालात क्या क्या नहीं करवाता है? कैसे कैसे त्याग करवाता है।


आभाव ही कई प्रकार की समस्याएँ लाती है। आभाव चाहे पैसे का हो या किसी और चीजों का, आभाव तो आभाव होता है। माता पिता के लिये बच्चे से बढ़ कर कुछ नहीं होता है। पर जिस आयु में बालक को घर पर होना चाहिये उसे पिता कहीं और छोड़ आया था।
बात केवल बिरहोर आश्रम की नहीं है या बिरहोर आश्रम कोई गलत स्थान नही है।
किसी बात के लिये सक्षम होना फिर उसे करना और उसी बात को मजबुरी में करना दोनो बहोत अलग है।

हमारे बीच ही कई माता-पिता अपने बच्चे को भाई के यहाँ, तो बहन के यहाँ, तो किसी चाचा, चाची, मामा, मामी के यहाँ छोड़ आते है। यह समझा कर की "वे लोग उनके बच्चे को पढाई लिखाई करायेंगे व ऐसी अन्य सुविधाएँ मिलेंगी।" पर ज्यादातर मामलो में बच्चो के साथ ऐसा नहीं हो पता है।

कभी कभी तो ऐसे भी नौबत आती है की घर की आर्थिक स्थिति खराब होने पर रिस्तेदार के यहाँ कुछ दिनो के लिये सभी मेहमान चले जाते है।

समय बहोत तेजी से बदल रहा है, चीजें कब बदल जाती है पता ही नही चलता है। आप सोचते है, सब ऐसा ही रहेगा । तो आप खुद को धोका दे रहे हैं।

समय सभी को मौका देती है बेहतर हासिल करने के लिये। आपको भी मिला है आप जो है उस से बेहतर बनिये। वक्त रहते कुछ और हासिल नही किया गया तो बाद में त्याग या हालात से समझौता के सिवा कुछ नहीं रह जाता है।

हो सकता है किसी बात को ले कर आपके रिस्तेदार आपको भाव नहीं देते है। आप सम्पन्न तो हो जाओ वही लोग आपको मुफ्त में सहयोग करेंगे, आपका काम करेंगे। जो कार्ड भेजने से नहीं पहुचते थे, शिकायते करते थे। अब आपके फोन करने से हाजिर होंगे और शिकायत उनके लिये प्रसाद होगा। हाँ, ऐसा ही होता है।

अरे कोई कठिन काम थोडे ही है। आप प्रयास तो करो। रिक्सा चालक को देखो, वह कितना मेहनत करता है ! उसका शारीरिक परिश्रम को देखो।
क्या आपके काम में इतना परिश्रम है? नहीं ना!

मजदूर के शारीरिक परिश्रम को देखो। उनके साथ क्या क्या नहीं होता? उनको गालियां तक पड़ जाती है। फिर भी वह इतना महान है की किसी से सिकायत नही करता है! फिर से काम पर लग जाता है।
जानते है क्यों?
क्योंकि वह सुबह सुबह अपने बीबी-बच्चो का मुँह देख कर जो आया है।


आप तो अपने बीबी-बच्चो को दिन में कई बार देखते हो! फिर?
आपको तो उनके जैसा शारीरिक परिश्रम भी नही करना है। फिर डर किस बात का?

मै तो कहता हु "बदल दो अपने हालात को।"
काम करो, काम।
अरे, क्या बिगड़ जायेगा एक टाईम का खाना घर पर नही खाओगे?
अरे, क्या बिगड़ जायेगा अगर रोज 20 लोगो को अपना प्रोजेक्ट बताओ गे?
ये भी बता दो -- क्या बिगड़ जायेगा, अगर महिने के दो लाख, 5 लाख या दस लाख कमा लोगे?
2 साल लग कर ऐसा मेहनत कर दो, कि बाकी जिंदगी आपको पैसे के लिए सोचना ना पड़े।
याद रखना जीवन की 90% समस्याएँ पैसे की कमी से होती है।
बस, इतना ही!

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"बदल डालो अपने किस्मत को।"
"आप अपने कदम तो बढ़ाओ... दुनिया की कोई ताकत आपको नहीं रोक सकती।" आपको मेरी अनंत शुभकामनाएं!


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